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Bhagavad Gita Chapter 3 Hindi

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Bhagavad Gita Chapter 3 Hindi

सम्पूर्ण श्रीमद्‍भगवद्‍गीता तृतीय अध्याय

Bhagavad Gita Chapter 3 Hindi

श्रीमद भागवत गीता के तीसरे (Bhagavad Gita Chapter 3 Hindi) अध्याय को कर्मयोग कहा जाता हे। इस अध्याय मे ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने का वर्णन, यज्ञादि कर्मों की आवश्यकता तथा यज्ञ की महिमा का वर्णन, ज्ञानवानऔर भगवान के लिए भी लोकसंग्रहार्थ कर्मों की आवश्यकता का वर्णन, अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिएप्रेरणा, और पापके कारणभूत कामरूपी शत्रु को नष्ट करने का उपदेश दिया कहा गया हे।

श्रीमद भागवत गीता के तीसरे (Bhagavad Gita Chapter 3 Hindi) अध्याय मे भगवान श्री कृष्ण ने ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अर्जुन को ज्ञान दिया हे।

Shrimad Bhagvat Geeta in English 

 

 

अर्जुन उवाच

ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन ।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ॥3.1॥

arjuna uvaca

jyayasi cetkarmanaste mata buddhirjanardana.
tatkin karmani ghore man niyojayasi kesava৷৷3.1৷৷

भावार्थ : अर्जुन बोले- हे जनार्दन! यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर हे केशव! मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं?॥1॥

 

यहां एक क्लिक में पढ़ें- श्रीमद भागवत गीता का प्रथम अध्याय

 

व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे ।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ॥3.2॥

vyamisreneva vakyena buddhin mohayasiva me.
tadekan vada nisicatya yena sreyo.hamapnuyam৷৷3.2৷৷

भावार्थ : अर्जुन बोले हे जनार्दन! आपके अनेकार्थक उपदेशों से मेरी बुद्धि भ्रमित हो गयी है। अत: कृपया मुझे निश्चित रूप से कोई एक ऐसा मार्ग बताएँ जो मेरे लिए सर्वाधिक लाभदायक हो।

अगर ऐसा है भी श्री कृष्ण स्पष्ट कहनेवाले हैं, फिर भी भगवान के वाक्य मिले हुए हे, मुझ मन्दबुद्धि को ऐसा ज्ञात होता। आपके ऐसे मिले हुए वचनो से मेरी बुद्धि मोहित कर रहे हैं। आप मेरा मोह दूर करने के लिये तत्पर रहते है, इसलिए मुझे मोहित कैसे करते फिर भी कहता हूँ हे कृष्ण आप मेरी बुद्धिको मोहित करते है।

यदि आप सोचें कि एक ही व्यक्ति के लिए ज्ञान और कर्म दोनों को अपनाना असंभव है, जिसे अलग-अलग व्यक्तियों द्वारा किया जा सकता है, तो फिर, ऐसी स्थिति होने पर, मुझे बताओ निश्चित्या, निश्चित रूप से; तदेकम, इनमें से एक, या तो ज्ञान या क्रिया: “यह वास्तव में अर्जुन के लिए अनुकूल है, उसकी समझ के अनुसार, ताकत और स्थिति जिसके द्वारा ज्ञान या क्रिया में से किसी एक द्वारा प्राप्त हो सकता है।॥2॥

श्रीभगवानुवाच

लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन साङ्‍ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ॥3.3॥

sri bhagavanuvaca

loke.smindvividha nistha pura prokta mayanagha.
jnanayogena sankhyanan karmayogena yoginam৷৷3.3৷৷

भावार्थ : श्रीभगवान ने कहा – हे निष्पाप अर्जुन! इस संसार में आत्म-साक्षात्कार की दो प्रकार की विधियाँ पहले भी मेरे द्वारा कही गयी हैं, ज्ञानीयों के लिये ज्ञान-मार्ग (सांख्य-योग) और योगियों के लिये निष्काम कर्म-मार्ग (भक्ति-योग) नियत है।॥3॥

न कर्मणामनारंभान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते ।
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥3.4॥

na karmanamanarambhannaiskarmyan puruso.snute.
na ca sannyasanadeva siddhin samadhigacchati৷৷3.4৷৷

भावार्थ : मनुष्य न तो कर्मों का आरंभ किए बिना निष्कर्मता (जिस अवस्था को प्राप्त हुए पुरुष के कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात फल उत्पन्न नहीं कर सकते, उस अवस्था का नाम ‘निष्कर्मता’ है।) को यानी योगनिष्ठा को प्राप्त होता है और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि यानी सांख्यनिष्ठा को ही प्राप्त होता है॥4॥

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥3.5॥

na hi kasicatksanamapi jatu tisthatyakarmakrt.
karyate hyavasah karma sarvah prakrtijairgunaih৷৷3.5৷৷

भावार्थ : निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है॥5॥

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् ।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥3.6॥

karmendriyani sanyamya ya aste manasa smaran.
indriyarthanvimudhatma mithyacarah sa ucyate৷৷3.6৷৷

भावार्थ : जो मूढ़ बुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात दम्भी कहा जाता है॥6॥

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन ।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥3.7॥

yastvindriyani manasa niyamyarabhate.rjuna.
karmendriyaih karmayogamasaktah sa visisyate৷৷3.7৷৷

भावार्थ : किन्तु हे अर्जुन! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है॥7॥

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः ॥3.8॥

niyatan kuru karma tvan karma jyayo hyakarmanah.
sarirayatrapi ca te na prasiddhyedakarmanah৷৷3.8৷৷

भावार्थ : तू शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म कर क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा।

जब तक मन और बुद्धि उस स्थिति में नहीं पहुंच जाते जहां वे ईश्वर-चेतना में लीन हो जाते हैं, तब तक कर्तव्य की भावना से किया गया शारीरिक कार्य किसी की आंतरिक शुद्धि के लिए बहुत फायदेमंद होता है। इसलिए, वेद मनुष्यों के लिए कर्तव्य निर्धारित करते हैं, ताकि उन्हें अपने मन और इंद्रियों को अनुशासन में रखने में मदद मिल सके। वास्तव में, आलस्य को आध्यात्मिक पथ पर सबसे बड़े नुकसानों में से एक बताया गया है।

आलस्य मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन है, और विशेष रूप से हानिकारक है क्योंकि यह उनके अपने शरीर में रहता है। काम उनका सबसे भरोसेमंद दोस्त है, और पतन के खिलाफ गारंटी है। यहां तक ​​कि खाने, नहाने और उचित स्वास्थ्य बनाए रखने जैसी बुनियादी शारीरिक गतिविधियों के लिए भी काम की आवश्यकता होती है। इन अनिवार्य कर्मों को नित्य कर्म कहा जाता है ।

इस प्रकार, जड़ता की स्थिति न तो भौतिक और न ही आध्यात्मिक उपलब्धि प्रदान करती है। अपनी आत्मा की प्रगति के लिए हमें उन कर्तव्यों को अपनाना चाहिए जो हमारे मन और बुद्धि को उन्नत और शुद्ध करने में मदद करते हैं।॥8॥

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधनः ।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर ॥3.9॥

yajnarthatkarmano.nyatra loko.yan karmabandhanah.
tadarthan karma kaunteya muktasangah samacara৷৷3.9৷৷

भावार्थ : यज्ञ के निमित्त किए जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मुनष्य समुदाय कर्मों से बँधता है। इसलिए हे अर्जुन! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भलीभाँति कर्तव्य कर्म कर॥9॥

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्टा पुरोवाचप्रजापतिः ।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥3.10॥

sahayajnah prajah srstva purovaca prajapatih.
anena prasavisyadhvamesa vo.stvistakamadhuk৷৷3.10৷৷

भावार्थ : प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजाओं को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो॥10॥

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥3.11॥

devanbhavayatanena te deva bhavayantu vah.
parasparan bhavayantah sreyah paramavapsyatha৷৷3.11৷৷

भावार्थ : तुम लोग इस यज्ञ द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे देवता तुम लोगों को उन्नत करें। इस प्रकार निःस्वार्थ भाव से एक-दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे॥11॥

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः ।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुंक्ते स्तेन एव सः ॥3.12॥

istanbhoganhi vo deva dasyante yajnabhavitah.
tairdattanapradayaibhyo yo bhunkte stena eva sah৷৷3.12৷৷

भावार्थ : यज्ञ द्वारा बढ़ाए हुए देवता तुम लोगों को बिना माँगे ही इच्छित भोग निश्चय ही देते रहेंगे। इस प्रकार उन देवताओं द्वारा दिए हुए भोगों को जो पुरुष उनको बिना दिए स्वयं भोगता है, वह चोर ही है॥12॥

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः ।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ॥3.13॥

yajnasistasinah santo mucyante sarvakilbisaih.
bhunjate te tvaghan papa ye pacantyatmakaranat৷৷3.13৷৷

भावार्थ : यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं और जो पापी लोग अपना शरीर-पोषण करने के लिए ही अन्न पकाते हैं, वे तो पाप को ही खाते हैं॥13॥

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः ।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥3.14॥

(Bhagavad Gita Chapter 3 Hindi)

annadbhavanti bhutani parjanyadannasambhavah.
yajnadbhavati parjanyo yajnah karmasamudbhavah৷৷3.14৷৷

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् ।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥3.15॥

karma brahmodbhavan viddhi brahmaksarasamudbhavam.
tasmatsarvagatan brahma nityan yajne pratisthitam৷৷3.15৷৷

भावार्थ : सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती है, वृष्टि यज्ञ से होती है और यज्ञ विहित कर्मों से उत्पन्न होने वाला है। कर्मसमुदाय को तू वेद से उत्पन्न और वेद को अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ जान। इससे सिद्ध होता है कि सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है॥14-15॥

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥3.16॥

evan pravartitan cakran nanuvartayatiha yah.
aghayurindriyaramo moghan partha sa jivati৷৷3.16৷৷

भावार्थ : हे पार्थ! जो पुरुष इस लोक में इस प्रकार परम्परा से प्रचलित सृष्टिचक्र के अनुकूल नहीं बरतता अर्थात अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, वह इन्द्रियों द्वारा भोगों में रमण करने वाला पापायु पुरुष व्यर्थ ही जीता है॥16॥

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥3.17॥

yastvatmaratireva syadatmatrptasca manavah.
atmanyeva ca santustastasya karyan na vidyate৷৷3.17৷৷

भावार्थ : परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट हो, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है॥17॥

संजय उवाच:

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन ।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥3.18॥

naiva tasya krtenartho nakrteneha kascana.
na casya sarvabhutesu kasicadarthavyapasrayah৷৷3.18৷৷

भावार्थ : उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थ का संबंध नहीं रहता॥18॥

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर ।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः ॥3.19॥

tasmadasaktah satatan karyan karma samacara.
asakto hyacarankarma paramapnoti purusah৷৷3.19৷৷

भावार्थ : इसलिए तू निरन्तर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्यकर्म को भलीभाँति करता रह क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है॥19॥

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः ।
लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ॥3.20॥

karmanaiva hi sansiddhimasthita janakadayah.
lokasangrahamevapi sanpasyankartumarhasi৷৷3.20৷৷

भावार्थ : जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्ति रहित कर्मद्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे, इसलिए तथा लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू कर्म करने के ही योग्य है अर्थात तुझे कर्म करना ही उचित है।

यह सिद्धांत कि मनुष्य निष्काम कर्म से मुक्ति प्राप्त करता है, राजा जनक और अश्वपति, इक्ष्वाकु, अंबरीष, भागीरध जैसे अन्य लोगों के उदाहरण से स्पष्ट होता है। वे सभी सम्राट थे जिन्होंने निष्काम कर्म के सिद्धांत का पालन किया और सर्वोच्च आध्यात्मिक लक्ष्य प्राप्त किया। यह जीवन जीने का एक प्राचीन तरीका है, और दुनिया में सबसे बड़ी जिम्मेदारियों वाले लोगों ने इस कार्य के रहस्य को समझा और इसे अपने दैनिक जीवन में अभ्यास किया।

भगवान सांसारिक दृष्टिकोण से भी अच्छे कार्य की आवश्यकता पर जोर देते हैं। मनुष्य को कम से कम मानव जाति की सेवा करने, उन्हें सही रास्ता दिखाने और उनके सामने एक उदाहरण स्थापित करने के लिए काम करना चाहिए। मानवता की सेवा का वास्तव में धर्म और दर्शन में बहुत ऊँचा स्थान है। किसी एक व्यक्ति की मदद करना भी वास्तव में एक महान कार्य है।॥20॥

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥3.21॥

yadyadacarati sresthastattadevetaro janah.
sa yatpramanan kurute lokastadanuvartate৷৷3.21৷৷

भावार्थ : श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य-समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है। ॥21॥

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन ।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥3.22॥

na me parthasti kartavyan trisu lokesu kincana.
nanavaptamavaptavyan varta eva ca karmani৷৷3.22৷৷

भावार्थ : हे अर्जुन! मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ॥22॥

यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥3.23॥

yadi hyahan na varteyan jatu karmanyatandritah.
mama vartmanuvartante manusyah partha sarvasah৷৷3.23৷৷

भावार्थ : क्योंकि हे पार्थ! यदि कदाचित् मैं सावधान होकर कर्मों में न बरतूँ तो बड़ी हानि हो जाए क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं॥23॥

यदि उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम् ।
संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ॥3.24॥

utsideyurime loka na kuryan karma cedaham.
sankarasya ca karta syamupahanyamimah prajah৷৷3.24৷৷

भावार्थ : इसलिए यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जाएँ और मैं संकरता का करने वाला होऊँ तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ॥24॥

 

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ यथार्थ गीता

(Bhagavad Gita Chapter 3 Hindi)

सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत ।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम् ॥3.25॥

saktah karmanyavidvanso yatha kurvanti bharata.
kuryadvidvanstathasaktasicakirsurlokasangraham৷৷3.25৷৷

भावार्थ : हे भारत! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं, आसक्तिरहित विद्वान भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे॥25॥

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङि्गनाम् ।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन् ॥3.26॥

na buddhibhedan janayedajnanan karmasanginam.
josayetsarvakarmani vidvan yuktah samacaran৷৷3.26৷৷

भावार्थ : परमात्मा के स्वरूप में अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि वह शास्त्रविहित कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न न करे, किन्तु स्वयं शास्त्रविहित समस्त कर्म भलीभाँति करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवाए॥26॥

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥3.27॥

prakrteh kriyamanani gunaih karmani sarvasah.
ahankaravimudhatma karta.hamiti manyate৷৷3.27৷৷

भावार्थ : वास्तव में सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते हैं, तो भी जिसका अन्तःकरण अहंकार से मोहित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी ‘मैं कर्ता हूँ’ ऐसा मानता है॥27॥

तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः ।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥3.28॥

tattvavittu mahabaho gunakarmavibhagayoh.
guna gunesu vartanta iti matva na sajjate৷৷3.28৷৷

भावार्थ : परन्तु हे महाबाहो! गुण विभाग और कर्म विभाग के तत्व (उपर्युक्त ‘गुण विभाग’ और ‘कर्म विभाग’ से आत्मा को पृथक अर्थात् निर्लेप जानना ही इनका तत्व जानना है।) को जानने वाला ज्ञान योगी सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता। ॥28॥

प्रकृतेर्गुणसम्मूढ़ाः सज्जन्ते गुणकर्मसु ।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत् ॥3.29॥

prakrtergunasammudhah sajjante gunakarmasu.
tanakrtsnavido mandankrtsnavinna vicalayet৷৷3.29৷৷

भावार्थ : प्रकृति के गुणों से अत्यन्त मोहित हुए मनुष्य गुणों में और कर्मों में आसक्त रहते हैं, उन पूर्णतया न समझने वाले मन्दबुद्धि अज्ञानियों को पूर्णतया जानने वाला ज्ञानी विचलित न करे॥29॥

मयि सर्वाणि कर्माणि सन्नयस्याध्यात्मचेतसा ।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥3.30॥

mayi sarvani karmani sannyasyadhyatmacetasa.
nirasirnirmamo bhutva yudhyasva vigatajvarah৷৷3.30৷৷

भावार्थ : मुझ अन्तर्यामी परमात्मा में लगे हुए चित्त द्वारा सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके आशारहित, ममतारहित और सन्तापरहित होकर युद्ध कर॥30॥

ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः ।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽति कर्मभिः ॥3.31॥

ye me matamidan nityamanutisthanti manavah.
sraddhavanto.nasuyanto mucyante te.pi karmabhih৷৷3.31৷৷

भावार्थ : जो कोई मनुष्य दोषदृष्टि से रहित और श्रद्धायुक्त होकर मेरे इस मत का सदा अनुसरण करते हैं, वे भी सम्पूर्ण कर्मों से छूट जाते हैं॥31॥

ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् ।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ॥3.32॥

ye tvetadabhyasuyanto nanutisthanti me matam.
sarvajnanavimudhanstanviddhi nastanacetasah৷৷3.32৷৷

भावार्थ : परन्तु जो मनुष्य मुझमें दोषारोपण करते हुए मेरे इस मत के अनुसार नहीं चलते हैं, उन मूर्खों को तू सम्पूर्ण ज्ञानों में मोहित और नष्ट हुए ही समझ॥32॥

सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि ।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥3.33॥

sadrsan cestate svasyah prakrterjnanavanapi.
prakrtin yanti bhutani nigrahah kin karisyati৷৷3.33৷৷

भावार्थ : सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात अपने स्वभाव के परवश हुए कर्म करते हैं। ज्ञानवान् भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है। फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा॥33॥

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥3.34॥

indriyasyendriyasyarthe ragadvesau vyavasthitau.
tayorna vasamagacchettau hyasya paripanthinau৷৷3.34৷৷

भावार्थ : इन्द्रिय-इन्द्रिय के अर्थ में अर्थात प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं। मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिए क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले महान् शत्रु हैं॥34॥

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥3.35॥

sreyansvadharmo vigunah paradharmatsvanusthitat.
svadharme nidhanan sreyah paradharmo bhayavahah৷৷3.35৷৷

भावार्थ : अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है॥35॥

अर्जुन उवाच

अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः ।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥3.36॥

arjuna uvaca

atha kena prayukto.yan papan carati purusah.
anicchannapi varsneya baladiva niyojitah৷৷3.36৷৷

भावार्थ : अर्जुन बोले- हे कृष्ण! तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात् लगाए हुए की भाँति किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है॥36॥

श्रीभगवानुवाच

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् ॥3.37॥

sri bhagavanuvaca

kama esa krodha esa rajogunasamudbhavah.
mahasano mahapapma viddhyenamiha vairinam৷৷3.37৷৷

भावार्थ : श्री भगवान बोले- रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है। यह बहुत खाने वाला अर्थात भोगों से कभी न अघानेवाला और बड़ा पापी है। इसको ही तू इस विषय में वैरी जान।

यहां भगवान उस रहस्यमय शक्ति का रहस्य बताते हैं जो मनुष्य को पाप करने के लिए मजबूर करती है, हालांकि वह ऐसा नहीं चाहता। हालाँकि, यह अच्छी तरह से जानते हुए कि कोई कार्य बुरा है, और ईमानदारी से उससे बचना चाहता है, मनुष्य स्वयं के बावजूद ऐसा करता है। यह सभी मनुष्यों के अनुभव में है। भगवान बल का विश्लेषण करते हैं, और कहते हैं कि काम और क्रोध की जुड़वां बुराइयाँ मनुष्य द्वारा किए गए सभी पापों के पीछे की शक्ति हैं।

इन दोनों में से काम पहला है और क्रोध काम का प्रभाव है। पहला है कारण और दूसरा है प्रभाव। जब कोई कारण नहीं है तो कोई प्रभाव भी नहीं हो सकता। जब कोई काम नहीं है, तो कोई क्रोध नहीं है। इसलिए काम को मनुष्य की छह बुरी प्रवृत्तियों में से पहली प्रवृत्ति कहा जाता है – काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य।

इसलिए भगवान साधक को साहस और दृढ़ संकल्प के साथ शत्रु पर विजय पाने के लिए प्रेरक शब्द कहते हैं, भले ही संघर्ष कितना भी लंबा और कठिन क्यों न हो।॥37॥

धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ॥3.38॥

(Bhagavad Gita Chapter 3 Hindi)

dhumenavriyate vahniryatha৷৷darso malena ca.
yatholbenavrto garbhastatha tenedamavrtam৷৷3.38৷৷

भावार्थ : जिस प्रकार धुएँ से अग्नि और मैल से दर्पण ढँका जाता है तथा जिस प्रकार जेर से गर्भ ढँका रहता है, वैसे ही उस काम द्वारा यह ज्ञान ढँका रहता है॥38॥

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा ।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥3.39॥

avrtan jnanametena jnanino nityavairina.
kamarupena kaunteya duspurenanalena ca৷৷3.39৷৷

भावार्थ : और हे अर्जुन! इस अग्नि के समान कभी न पूर्ण होने वाले काम रूप ज्ञानियों के नित्य वैरी द्वारा मनुष्य का ज्ञान ढँका हुआ है॥39॥

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते ।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् ॥3.40॥

indriyani mano buddhirasyadhisthanamucyate.
etairvimohayatyesa jnanamavrtya dehinam৷৷3.40৷৷

भावार्थ : इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि- ये सब इसके वासस्थान कहे जाते हैं। यह काम इन मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोहित करता है। ॥40॥

तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ॥3.41॥

tasmattvamindriyanyadau niyamya bharatarsabha.
papmanan prajahi hyenan jnanavijnananasanam৷৷3.41৷৷

भावार्थ : इसलिए हे अर्जुन! तू पहले इन्द्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले महान पापी काम को अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल।

श्री कृष्ण बताते हैं कि काम (वासना) पहले इंद्रियों को गुलाम बनाकर, फिर मन को भ्रमित करके और फिर बुद्धि को भ्रमित करके काम करती है। भोग की वास्तविक क्रिया में कोई भी विभाजन नहीं कर सकता। लेकिन साधना में शरीर और मन के तंत्र का विश्लेषण करना शामिल है। भगवान काम से छुटकारा पाने के लिए पहले कदम के रूप में इंद्रिय-नियंत्रण पर जोर देते हैं। इन्द्रियाँ किले के मुख्य द्वार के समान हैं।

इसलिए सबसे पहले इंद्रियों को वश में करना चाहिए। इंद्रियों के माध्यम से प्राप्त आनंद को विवेक और वैराग्य के अभ्यास से त्याग देना चाहिए। यह आध्यात्मिक उन्नति का प्रारंभिक बिंदु है। भगवान हर साधक से कहते हैं, “कोई भी अन्य बाधाएँ और कठिनाइयाँ हों, सबसे पहले इस पर ध्यान दें। इंद्रियों पर नियंत्रण रखना आवश्यक है।॥41॥

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः ।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥3.42॥

indriyani paranyahurindriyebhyah paran manah.
manasastu para buddhiryo buddheh paratastu sah৷৷3.42৷৷

भावार्थ : इन्द्रियों को स्थूल शरीर से पर यानी श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म कहते हैं। इन इन्द्रियों से पर मन है, मन से भी पर बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अत्यन्त पर है वह आत्मा है॥42॥

एवं बुद्धेः परं बुद्धवा संस्तभ्यात्मानमात्मना ।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम ॥3.43॥

evan buddheh paran buddhva sanstabhyatmanamatmana.
jahi satrun mahabaho kamarupan durasadam৷৷3.43৷৷

भावार्थ : इस प्रकार बुद्धि से पर अर्थात सूक्ष्म, बलवान और अत्यन्त श्रेष्ठ आत्मा को जानकर और बुद्धि द्वारा मन को वश में करके हे महाबाहो! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रु को मार डाल।

अंत में, श्री कृष्ण इस बात पर जोर देते हैं कि हमें वासना नामक इस शत्रु को आत्मज्ञान के माध्यम से मारना चाहिए। क्योकि आत्मा ईश्वर का अंश है, इसलिए उसका स्वरूप दिव्य है। सभी दुखों का कारण मनुष्य का अपने वास्तविक स्वरूप के प्रति अज्ञान है। यह सोचकर कि वह शरीर, इंद्रियाँ और मन है, वह उनके सभी विकर्षणों, विघ्नों, उत्तेजनाओं और कष्टों को स्वयं मानता है।

भौतिक शरीर और संसार के साथ यह तादात्म्य ही सभी दुखों और पीड़ाओं का मूल कारण है। इसलिए भगवान सभी मानव जाति को उपदेश देते हैं, “जान लो कि तुम आत्मा हो जो बुद्धि से परे है, तुम शरीर नहीं हो। इसलिए स्वयं की शरण लें और अदम्य शत्रु – काम पर विजय प्राप्त करें।” यह पीड़ित मानवता के लिए प्रभु का प्रेरक संदेश है।

आत्मा अपनी उच्च प्रकृति के प्रति जागती है और सक्रिय भूमिका निभाने का निर्णय लेती है, तो वह बुद्धि का उचित दिशा में उपयोग कर सकती है। तब बुद्धि निचले स्व-मन और इंद्रियों पर शासन करेगी और रथ शाश्वत कल्याण की दिशा में आगे बढ़ेगा।॥43॥

 

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तृतीय अध्याय संपूर्णम्॥2॥

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